उनको रोक लेने का, थाम लेने का मन था सबका,
पर, शायद वह मन बना चुके थे कब का।
कि, हां, जाना है, मुझे जाना है इस मजमे से, इस हजूम से, कहीं दूर,
जहां अपनी मां के ठंडक भरे आंचल में अपना वक़्त गुज़ार सकूं।
वह कहते थे ख़ुद को खोज डालो, ख़ुद को पहचान डालो,
वह कहते रहे और हम सुनते रहे बस एक ही बात कि ख़ुद में जान डालो।
वह चल दिए आज बहुत दूर हमें बहुत कुछ सिखा कर,
कभी खिड़की न खुली छोड़ना, तो कभी कूड़ा न करना खाकर।
कभी घर के खाने की मलयत बताई,
तो कभी देर से पहुंचने पर डांट लगाई।
कभी मिट्टी से जुड़ना सिखाया,
तो कभी बंजर शरीर का पाठ पढ़ाया।
कभी फिल्म के लिए नज़रिया बदल डाला,
तो कभी मार्केटिंग का गुण सिखा डाला।
कभी ज़िंदगी जीना सिखा डाला,
कभी शरीर से परे का रहस्य बता डाला।
हर मूक चीज़ भी उन्होंने अपनी दोस्त बता डाली,
इसी प्रेम और स्नेह से हर चीज़ में जान डाली।
इतना कुछ सिखा कर भी वह जा रहे हैं हमसे दूर,
अब आप ही बताएं उन्हें कैसे रोक लिया जाए,
रोक लिया जाए या फिर जाने दिया जाए, हुज़ूर?